Shri krishna

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
अर्थात मन को वश में करने के लिए उस पर दो तलवारों से प्रहार करना पड़ता है। एक तलवार अभ्यास की है और दूसरी तलवार है वैराग्य की।
देखो अर्जुन! अभ्यास का अर्थ है निरंतर अभ्यास। मन को एक काम पर लगा दो, वो वहां से भागेगा, उसे पकड़ कर लाओ, वो फिर भागेगा, उसे फिर पकड़ो। ऐसा बार बार करने पड़ेगा। जैसे घोड़े का नवजात शिशु एक क्षण के लिए भी स्थिर नहीं रहता। क्षण क्षण में इधर उधर फुदकता रहता है।
उसी प्रकार मन भी क्षण क्षण में इधर उधर भटकता रहता है। एक चंचल घोड़े की तरह मन भी बड़ा चंचल होता है और ऐसे चंचल मन को काबू करना उतना ही कठिन है जैसे किसी मुँहजोर घोड़े को काबू करना। ऐसे घोड़े को काबू करने के लिए सवार जितना जोर लगता है, घोडा उतना ही विरोध करता है और बार-बार सवार को ही गिरा देता है। परन्तु यदि सवार दृढ संकल्प हो तो अंत में वो उस घोड़े पर सवार हो जाता है, बस, फिर वही घोडा सवार के के इशारे पर चलता है।
इसी प्रकार मन को भी नियंत्रण की रस्सी में बांधकर बार-बार अपने रास्ते पर लाया जाता है तो अंत में वो अपने स्वामी का कहना मानना शुरू कर देता है। इसी को कहते हैं अभ्यास की तलवार चलाना।
अर्जुन पूछता है- जब अभ्यास की तलवार से ही मन सही रास्ते पर आ जाये फिर वो दूसरी वैराग्य की तलवार की क्या आवश्यकता है?
कृष्ण कहते हैं – उसकी आवश्यकता इसलिए है, एक बार ठीक रास्ते पर आ जाने के बाद मन फिर से उलटे रास्ते पर ना चला जाये क्योंकि उलटे रास्ते पर इन्द्रियों के विषय उसे सदा ही आकर्षित करते रहेंगे। मिथ्या भोग, विलास और काम की तृष्णा उसे फिर अपनी ओर खींच सकती है। इसलिए मन को ये समझना जरुरी है कि वो सारे विषय भोग, मिथ्या हैं, असार हैं। योग माया के द्वारा उत्पन्न होने वाले मोह का भ्रम हैं। मन जब इस सत्य को समझ लेगा तो उसे विषयों से मोह नहीं रहेगा बल्कि उसे वैराग्य हो जायेगा और यही वैराग्य की तलवार का काम है कि वो विषयों को काट के मन को सन्यासी बना देती है।
मोह से विमूहित जब बुद्धि तेरी भली भांति, मोह रूपी दलदल को पार कर जाएगी।
लोक परलोक से संबंधित भोगों के प्रति तब तेरे मन में विरक्ति भर जाएगी।
वासना की वासना रहेगी तेरे पास तनिक, मन स्थिर हो जायेगा कामना मर जाएगी।
हे अर्जुन मन के स्थिर होने पर आत्मा ये परमात्मा रूपी सागर में उतर जाएगी।
अब अर्जुन पूछता है- हे केशव! ये जो तुम वैराग्य की बात करते हो, ये तो तभी आ सकता है जब प्राणी को आपकी इस बात पर विश्वास हो जाये कि ये सारा जगत वास्तव में मिथ्या है, नश्वर है, परन्तु आपकी माया के प्रभाव से वो सत्य जान पड़ता है। इस परम सत्य के ज्ञान पर विश्वास हो जाये तभी तो वैराग्य होगा।
कृष्ण कहते हैं- बिल्कुल! ज्ञान ही मनुष्य के ह्रदय में वैराग्य पैदा कर सकता है और वही सच्चा ज्ञान मैं तुम्हे प्रदान कर रहा हूँ।
इसके बाद अर्जुन पूछता है कि भगवन तुम तो सच्चा ज्ञान मुझे दे रहे हो लेकिन मेरा मन उसे मानता क्यों नहीं?
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